पूर्वोत्तर भारत
का छोटा सा राज्य त्रिपुरा ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी रहा है. त्रिपुरा का बडा
पुराना और लंबा इतिहास है. इसकी अपनी अनोखी जनजातीय संस्कृति तथा सुसंस्कृत
लोकगाथाएं है. रामायण और महाभारतकालीन साक्ष्य आज भी त्रिपुरा के राजमहल संग्रहालय
में सुरक्षित है. शक्ति के इक्यावन पीठों में से एक त्रिपुरेश्वरी (त्रिपुर सुंदरी)
देवी का मंदिर वहीँ हैं. राजा त्रिपुर का वैभव और अशोक का पदचिन्ह भी अभी मिटा
नहीं है. मुगलों से लोहा लेने वाले भूमि पुत्रों की निशानियाँ आज भी कायम है.
लेकिन आज का त्रिपुरा जिस स्थिति में है उसे जानना भी जरुरी है. आइये आपको शिव -
शक्ति की नगरी का दर्शन करवा दें.
महाभारत सहित कई धार्मिक-सांस्कृतिक ग्रंथों
में जिन स्थानों का प्रमुखता से वर्णन है उसमें त्रिपुरा भी है. लोककथाओं में इस
भूखंड के नाम से जुड़ी कई मान्यताएं हैं. एक कथा के मुताबिक राजा त्रिपुर, जो ययाति वंश का 39 वाँ राजा था, उनके नाम पर ही इस राज्य का नाम त्रिपुरा पड़ा. वहीँ दुसरे मत के अनुसार
स्थानीय देवी त्रिपुर सुन्दरी के नाम पर इसका नाम त्रिपुरा पड़ा. लेकिन एक कथा और है जो ज्यादा रोचक है.
त्रिपुर
नाम का एक राक्षस हुआ जिसने एक लाख वर्ष तक तपश्या की. उसके तपश्या से इन्द्रादि देवता
भी भयभीत हो उठे. त्रिपुर के तपस्या को भंग करने के अनेको प्रयास विफल हो गए.
ब्रह्मा जी स्वयं प्रकट होकर उससे वर मांगने को कहा. त्रिपुर ने मनुष्य या देवता
के हाथों न मरे जाने का वरदान प्राप्त किया. कुछ समय बीतने पर देवताओं नें मंत्रणा
कर कैलाश पर भगवन शिव के साथ त्रिपुर को युद्ध में लगा दिया. शिव ने भेष बदलकर कार्तिक
पूर्णिमा को त्रिपुर राक्षस का वध कर दिया. गिरिजापति शिव यहीं त्रिपुरारी कहलाये.
इस रात्रि देव दीपावली भी मनाया जाता है.
महाभारत की कई कथा भी त्रिपुरा से जुड़ी हैं. ऐसी मान्यता है कि महाभारत के
युद्ध में तत्कालीन त्रिपुरा नरेश कई हजार हाथी, घोड़े और सैनिकों के साथ कुरुक्षेत्र
पहुंचे थे. महाभारत कालीन वह ध्वज आज भी राजमहल में सुरक्षित है.
कालचक्र की गति के साथ इन कथाओं की
सत्यता को भले ही झुठला दिया जाय, लेकिन लोक व्यव्हार उस समाज के वर्त्तमान मनोदशा
को जानने का सबसे बेहतर तरीका होता है. वर्त्तमान त्रिपुरा की
स्थापना 14वीं शताब्दी में 'माणिक्य' नामक
इंडो-मंगोलियन आदिवासी मुखिया ने की थी, जिसने हिन्दू
धर्म अपनाया था. त्रिपुरा के शासकों को मुग़लों के बार-बार
आक्रमण का भी सामना करना पड़ा जिसमें आक्रमणकारियों
को कम ही सफलता मिलती थी. कई लड़ाइयों
में त्रिपुरा के शासकों ने बंगाल के सुल्तानों को हराया. 19वीं शताब्दी में 'महाराजा वीरचंद्र किशोर माणिक्य बहादुर' के शासनकाल में त्रिपुरा में नए युग का सूत्रपात
हुआ. उन्होंने अपने प्रशासनिक ढांचे को ब्रिटिश भारत के नमूने पर
बनाया और कई सुधार लागू किए. उनके
उत्तराधिकारों ने 15 अक्तूबर, 1949 तक त्रिपुरा पर
शासन किया. इसके बाद त्रिपुरा भारत संघ में शामिल हो
गया. प्रारम्भ में यह भाग - सी के अंतर्गत आने
वाला राज्य था और 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के बाद यह
केंद्रशासित प्रदेश बना. 1972 में इसने पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त
किया. केरल और पश्चिम बंगाल के सदृश त्रिपुरा में भी
लम्बे अरसे से वामपंथी शासन है. प्रगतिशील विचार के समर्थकों के शासन काल में
वास्तविक प्रगति की गति सिथिल पड़ चुकी है. ढांचागत बुनियादी संरचनाये अभी भी
विकसित नहीं हुई है. उग्रवाद और नक्सलवाद चरम पर है.
गोवा
तथा सिकिम्म के बाद त्रिपुरा देश का तीसरा सबसे छोटा राज्य है. कृषि, पर्यटन तथा
कला जगत में विकास की अपार संभावनाएं राजनीतिक संकीर्णता की भेंट चढ़ जाती है. शिव
और शक्ति के इस प्रदेश का कभी आप भी दीदार जरुर करिए.
राजीव पाठक
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