1995 की घटना है, लंदन में स्वामीनारायण संप्रदाय वालों ने अक्षरधाम की तरह ही एक भव्य मंदिर बनाया था. स्वामीनारायण वालों की विशेषता है कि वो अपने मंदिरों के साथ जुड़े संग्रहालय में हिन्दू संस्कृति और इतिहास का परिचय कराने वाली मूर्तियाँ, कलाकृतियाँ आदि भी लगाते हैं. लंदन के मंदिर में स्वामीनारायण पंथ के सन्यासियों ने एक दिन वहां के मेयर को आमंत्रित किया. मदिर में दर्शन करने के पश्चात् वो मेयर मंदिर के साथ लगे संग्रहालय भी देखने गये. वहां पर रामायण को चित्रित करती तस्वीरें लगी थी. इन तस्वीरों का अवलोकन करते-करते वो मेयर श्रवण कुमार की उस तस्वीर के सामने रूक गये जिसमें श्रवण अपने बूढ़े अंधे माता-पिता को बहंगी में उठाये हुए हैं. मेयर साहब ने साथ चल रहे संन्यासी से पूछा कि तस्वीर में दिख रहा ये युवक कौन है और क्या कर रहा है? संन्यासी ने उन्हें बताया कि ये हमारे रामायण काल का एक युवक श्रवण है जिसके माता-पिता वृद्ध और अंधे थे. उसके माता-पिता की तीर्थाटन की इच्छा हुई तो श्रवण ने उन्हें बहंगी में बिठाकर सारे भारतवर्ष का तीर्थाटन कराया. सुनकर मेयर हतप्रभ रह गया, उनके मुंह से निकला, क्या ये संभव है कि एक नवयुवक जिसकी अभी मौज-मस्ती करने की उम्र है वो इस तरह से अपने वृद्ध और अंधे माता-पिता को तीर्थयात्रा करवा रहा है? शायद मेयर साहब की आँखों के सामने इंग्लैंड में खुले हुए ढ़ेरों वृद्धाश्रम के दृश्य घूम गये. संभवतः उन्हें ये भी पता था कि उनके इंग्लैंड में जब माँ-बाप बूढ़े हो जाते हैं तो बच्चों को लगता है कि ये डिस्टर्ब करते हैं इसलिये वो उन्हें ओल्ड-एज-होम में छोड़ आते हैं और इसलिये उस मंदिर से वापस आने के बाद उस मेयर ने फ़ौरन वहां के स्कूलों के लिए एक सर्कुलर निकाला कि रविवार को अपने बच्चों को स्वामीनारायण मंदिर में लेकर जाओ ताकि वो सीख सकें कि हिन्दू धर्म क्या है, हिन्दू जीवन-मूल्य क्या है.
यही वो कारण है जिसके चलते हिन्दू धर्म और भारत भूमि युगों-युगों से सबकी अंतिम आश्रयस्थली रही है. विष्णु पुराण कहता है,
गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ये भारतभूमि भागे,
स्वार्गापवर्गास्पदहेतुभूते भवन्ति भूयः पुरुषा सुरत्वात ।
स्वार्गापवर्गास्पदहेतुभूते भवन्ति भूयः पुरुषा सुरत्वात ।
अर्थात्, “हम देवताओं में भी वो लोग धन्य हैं जो स्वर्ग और अपवर्ग के लिए साधनभूत भारत भूमि में उत्पन्न हुए हैं.”
पर हरेक को इस भारत-भूमि और इस पवित्र धर्म में जन्म लेने का सौभाग्य नहीं मिलता इसलिये जिसने भी प्रकृति या परमशक्ति के साथ खुद को जोड़ा वह सहज रूप से इस ओर खिंचा चला आता है. स्वामी विवेकानंद ने कहा था, “यदि पृथिवी पर कोई ऐसी भूमि है, जिसे मंगलदायनी पुण्यभूमि कहा जा सकता है, जहाँ ईश्वर की ओर अग्रसर होने वाली प्रत्येक आत्मा को अपना अंतिम आश्रयस्थल प्राप्त करने के लिए जाना ही पड़ता है, तो वो भारत है.”
स्वामी जी के इस कथन का साक्ष्य समय-समय पर मिलता रहा है. कहतें हैं एक बार एक जर्मन इस भारत भूमि पर अपनी आध्यात्मिक पिपासाओं को शांत करने आया था. उसने इस देश के ऋषि-मुनियों के चरणों में बैठ कर लम्बे समय तक साधनाएं की पर ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर पाया. उसे यही लगा कि उसका शरीर और मन जो बर्षों-बरस तक पश्चिम के तमोगुणी संस्कारों में रहा और पला है इस कारण वह ईश्वर का साक्षात्कार और अपने अंतःस्थ में उसकी अनुभूति नहीं कर पा रहा है. वह हरिद्वार गया पवित्र गंगा में जल समाधि ले ली. अपने पीछे वो एक पत्र छोड़ कर गया, जिसमें उसने लिखा, -“मैं स्वयं अपने शरीर का त्याग कर रहा हूँ. गंगा के पावन जल में अपने शरीर को अर्पित करने से उस मंगलमय की कृपा से मुझे भारत में पुनर्जन्म का सौभाग्य प्राप्त हो और उस नवीन निर्मल शरीर से मैं ईश्वर का साक्षात्कार करने योग्य हो जाऊं.”
उस जर्मन ईसाई की ही तरह दुनिया के अलग-अलग मत-मजहबों में जन्मी आत्माएँ पवित्र हिन्दू धर्म और भारत भूमि की ओर इसी तरह खींची चली आती है पर हम हिन्दू मत-विस्तार को किसी को अपने भीतर लाने को विजय-घोषणा के रूप में प्रचारित नहीं करते इसलिये ऐसी विभूतियों का साक्षात्कार हमें नहीं हो पाता. आज कृष्ण-जन्माष्टमी के पावन पर्व पर बनारस से मित्र संतोष सिंह ने ऐसे ही एक अध्यात्म-पिपासु भारत भक्त और प्रकृति के सहज धर्म हिंदुत्व के उपासक श्री फ्रेड रोनाल्ड के बारे में बताया और उनकी तस्वीर भेजी (संलग्न) . श्री रोनाल्ड मूल रूप से एरिज़ोना, अमेरिका से हैं, इन्वेस्टमेंट एनालिस्ट के रूप में अच्छे तरीके से जीवन-यापन कर रहे थे साथ ही ईसाई मत का अनुपालन भी करते थे पर चर्च की शिक्षाएं उनके आध्यात्मिक मन को ईसाईयत के साथ बांध कर नहीं रख सकी. ईसाईयत के साथ उन्होंने सेमेटिक के बाकी शाखों का भी अध्ययन किया पर वहां भी उन्हें अतिवाद, संकुचन और संकीर्णता ही मिली. 2008 में किसी हिन्दू संन्यासी को माध्यम बनाकर विधाता ने उन्हें प्रकृति के सहज धर्म हिंदुत्व और उपासना-स्थली भारत की ओर मोड़ दिया. जब भारत और हिंदुत्व से मिले तो लगा, यार यही तो वो था जिसकी तलाश में मैं बरसों से था. यही तो है जहाँ अंध-आस्था और उन्माद नहीं बल्कि अनुभूति की प्रधानता है. जिस चीज़ की चाह थी वो मिली तो उसे पाने के बाद फिर हिंदुत्व और भारत के ही होकर रह गये. उन्हें समझ में आ गया था कि क्यों प्रभु ईसा ने अपनी अंतिम राह भारत की ओर लिया था.
आज ब्रज के उस ग्वाल-बाल के कंठ से निकली अमर गीता वाणी पश्चिम के विश्वविद्यालयों में गूँज रही है, राम का चरित्र वहां के परिवार को जोड़ रहा है और श्रवण की कथाएं माता-पिता का सम्मान सिखा रही है, हिन्दू जीवन-दर्शन, हिन्दू-चिंतन श्री फ्रेड जैसी न जाने कितनी पुण्यात्माओं के लिये अपना जन्म सफल करने का कारण बन रही हैं . ये हिंदुत्व का जादू नहीं है तो और क्या है जो आज सारी दुनिया में सर चढ़ कर बोल रहा है.
चलते-चलते ये भी बता रहा हूँ कि श्री फ्रेड रोनाल्ड ने अपने पुत्र का नाम "कृष्ण" रखा है.
साभार : अभिजीत कुमार
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दिनांक 06/09/2016 को
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