मंगलवार, 2 जुलाई 2013

दो चश्में से देखिये : रान्झाना

"राँझना" पर दर्जनों रिव्यू पढ़ने के बाद आख़िरकार हम भी फिल्म देखने को विवश हुए । इंटरवल के पहले तक हाल में गूंजते सीटी से लगा की पी.वी.आर साकेत में आज बनारस के ही सारे लौंडे भड़े हैं । लेकिन ऐसा था नहीं ! जनता को फिल्म से इंटरटेन्मेंट चाहिए, सो उसे मिल रहा था । इंटरवल के कुछ ही मिनट बाद सीटी खामोसी में तब्दील हुई जो अंत में दर्शकों को न बोलने दे रही थी और न ही चुप रहने ! इश्क के चश्में से देख रहे दर्शक उदाश थे । जोया ने कुंदन के साथ अच्छा नहीं किया ! एक चश्मा राजनीति का है जिससे देखने पर यह सब जायज दिखता है । बनारसी स्टायल वाला कुंदन का दोस्त मुरारी अपनी बेबाक जुबान से दर्शकों की ताली बटोर ले गया ।ज़ोया के सोलह थप्पड़ खाकर भी कुंदन उसके प्यार के नींद में नए ख्वाब बुनता रहा । उधर ज़ोया को बनारस से अलीगढ आये अब चार साल हो गया । अब वो बारहवीं कर चुकी है । अगली मंजिल दिल्ली में जे.एन.यू.। ज़ोया को उसके तरफ से पहला प्यार यहीं जे.एन.यू. में हुआ । जसजीत सिंह शेरगिल जे.एन यू. ही नहीं भविष्य में देश का नेता होने वाला है और ज़ोया उसकी बेगम । प्रेसिडेंट बन गया जसजीत जे.एन यू. का । ज़ोया अब उसके साथ राजनीति में भी रूचि लेने लगी । कहानी का अगला अध्याय ऐसा कि कुंदन की जिंदगी, दिल्ली की राजनीति और ज़ोया जसजीत का प्यार सब बदल गया ।कहानी बनारस से शुरू होकर पुनः बनारस में ही ख़तम होने वाली है । विधाता का विधान ऐसा कि जोय और कुंदन कि शादी एक ही दिन सुनिश्चित हुई लेकिन एक दुसरे से नहीं । हल्दी लगी ,घर सजाये गए, मेहमान आ गए, लेकिन जन्म,मृत्यु और विवाह तो विधाता ही तय करता है कि कब और कहाँ होगा । शादी से पहले ही ज़ोया की चालाकी पकड़ी गई । अकरम हिन्दू है ! कुंदन-ज़ोया के कबाबी प्यार में कुंदन का हिन्दू होना ही तो हड्डी बन गया । लेकिन कमबख्त दिल तो दिल है, इसबार भी वहीँ अटका ! सबको पता चल गया । अकरम बने जे.एन.यू. के सुधारवादी नेता जसजीत को उनके किसी सिद्धांत की सुरक्षा न मिल सकी । उधर कुन्दन ने ज़ोया को जसजीत के घर पहुचने की ठान ली । कुन्दन और ज़ोया जसजीत के घर तो पहुंचे लेकिन जसजीत दुनिया त्याग चुका था । ज़ोया भी जे.एन.यू. में रहते हुए राजनीति की चाल चलना सीख गई थी । लेकिन ज़ोया का "रान्झाना" कुंदन का नसीब भी उसे जे.एन.यू. में घसीट लाया । अब असली राजीनीति शुरू हुई । ज़ोया जसजीत के सपनों को पूरा करने में लगी, लेकिन चाय वाले कुंदन का संवाद और तर्क उसे नेता बना दिया । ज़ोया को यह रास नहीं आया और न हीं सत्तारूढ़ दल के मुख्यमंत्री को । ज़ोया अब राजनीति के लिए फिर से कुंदन को स्नेह जाल में फसा चुकी थी । कुंदन आज जनता को संबोधित करने वाला था । लेकिन यह संभव न हो सका । ज़ोया ने कुंदन के मरने के बाद ही सही, मिडिया के सामने मुख्यमंत्री की नकाब उतार डाली । फिल्म तो यहीं तक । लेकिन फिल्म के अन्दर की राजनीति अभी समझना बांकी है रान्झाना की पटकथा सुगठित और सुन्दर है लेकिन मूल कहानी में सेकुलर डफली बजाने के लिए जे.एन.यू. की पूरी स्टोरी घुसाई गई लगती है । आनंद एल राय कहीं न कहीं अरविन्द गौड़ से भी कुछ प्रभावित लगते हैं । अरविन्द गौड़ और उनकी स्मिता थियेटर ग्रुप के कलाकारों का इस फिल्म में जैसा चरित्र दिखाया गया है वह उनके वास्तविक जीवन का चित्रण ही लगता है । ज़ोया ने छोटे शहरों से महानगरों में आ रहे युवाओं का चरित्र चित्रण चुपके से सबके सामने रख दिया है । फिल्म अच्छी है । नहीं देखें तो देखियेगा ज़रूर लेकिन दो चश्मों के साथ इश्क और राजनीति दोनों का चश्मा । अंक 4/5

राजीव पाठक 
+919910607093

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