आज कल गुवाहाटी से दिल्ली जाने वाली सभी ट्रेने भड़ी हुई मिल रही है.दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला का मौसम जो शुरू हो गया है.
पिछले कुछ वर्षों में डी.यू. और दिल्ली के अन्य विश्वविद्यालयों में पूर्वोत्तर भारत के विद्यार्थियों की संख्या बढ़ी है इसका अनुभव डी.यू. में नियमित पढ़ते हुए मैंने किया है.लेकिन अब जब की मै पूर्वोत्तर में हूँ,इस विषय की वास्तविकता जानना चाहा कि यहाँ से डी.यू. तक पहुचने में पूर्वोत्तर के विद्यार्थियों को क्या मसक्कत करनी पड़ती है और यदि वहां तक पहुँच भी जाते है तो उन्हें किन समस्यायों से दो-चार होना पड़ता है.
दिल्ली के बारहवी कक्षा के स्टुडेंट को भली भांति पता होता है कि अमुक कालेज कहा है?,फार्म कहा से मिलेगा?जमा कहा होगा? और यदि पता नहीं भी है तो उसको बताने वाले कई होते है जो डी.यू. से पढ़ रहे है या पढ़ चुकें है.साथ ही सभी कालेजो में घूम कर भी वह फार्म भर सकता है.क्यों कि घर दिल्ली में ही है,तो सब कुछ पता होना स्वाभाविक है.
लेकिन दिल्ली का जिसने सिर्फ नाम सुना हो,लेकिन डी.यू में ही नामांकन लेने कि इक्षा हो.सिर्फ इक्षा ही नहीं काबिलियत भी रखता हो.एसे भी हजारो स्टुडेंट दिल्ली से बाहर भारत के निर्जन क्षेत्रो में रहते है.परन्तु उसका सपना कई बार सपना ही बना रह जाता है.ऐसा ही होता है पूर्वोत्तर के अधिकांस विद्यार्थियों के साथ.
मेरे बातो का प्रमाण आपको आज कल पूर्वोत्तर के तथाकथित शैक्षणिक संस्थानों के द्वारा डी.यू. के लिए चल रहे काउंसलिंग से मिल जायेगा.यहाँ होने वाले काउंसलिंग में इन विद्यार्थियों से नामांकन के नाम पर हजारो रुपये इकठ्ठे ले लिया जाता है,उसमे रेल भाडा,दिल्ली में रुकने के खर्चें,फार्म के नाम पर कई सौ रुपये साथ ही उनका अपना सेवा शुल्क शामिल होता है.अरुणाचल के किसी ग्रामीण क्षेत्र के माता-पिता अपने बच्चे के भविष्य को ध्यान में रखकर ये खर्च करने को तैयार हो जाते है.परन्तु इसमे से आधे से ज्यादा ठगी के शिकार बन जाते है.जब उनका ना तो नामांकन हो पता है ना ही पैसा वापिस मिलता है.
स्वयं के प्रयास से या ठगी का शिकार बनकर भी जो नामांकन ले भी लेते है,उनके भी अनुभव बहुत अछे नहीं है.है.इस बात की सच्चाई से आप भी सहमत होंगे कि पूर्वोत्तर के छात्रो ने कभी भी दिल्ली में उत्पात नहीं मचाया है,कभी छात्र राजनीति के नाम पर पैसा वसूली नहीं की है.लेकिन उनको अपमानित जरुर होना पड़ता है,हंसी का पात्र जरुर बनना पड़ता है.कभी कोई नेपाली या चीनी कहता है तो कभी चौमिन नाम से संबोधन होता है.
ये सही है की इस प्रकार की हरकतें सब नहीं करते,लेकिन जो करते है वो भी डी.यू. जैसे उच्च संस्थान के ही खास कर दिल्ली के रहने वाले होते है.
क्या कभी पूर्वोत्तर के विद्यार्थियों से भाषाई समस्या के बावजूद उसके क्षेत्र, वहा की संस्कृति,उसके खान-पान और जीवन शैली जानने की कोशिश कोई करता है? उसे कोई दोस्त बनाकर दीपावली में अपने घर ले जाता है? नहीं ना.
तो भारत के एकरूपता का आभाश उसे कैसे होगा? उसके सम्मान का क्या कोई मूल्य नहीं है?
ताकि अपने ही देश के किसी कोने में रहने वाला भोला-भाला ठगा ना जाय और उसे यह एहसास ना हो कि दिल्ली उसका नहीं है.
राजीव पाठक
पूर्वोत्तर भारत
rajeevpathak@journalist.com
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बहुत ही बढ़िया लेख| आपके उठाये गए सवाल पर हम सभी को ध्यान देना चाहिए
जवाब देंहटाएंरत्नेश त्रिपाठी
mahoday, aapke blog se pata chala ki Manipur ke ugrawadi sanghthano ni sabhi gair-Manipuri ko 31-05-10 tak Manipur ke seema se bahar jane ko kaha hai. aaj ye samayseema khatm ho gaee ab kya halat hai Manipur me. krapya awgat kraye.
जवाब देंहटाएं-Koushlendra singh Rathor
वास्तव में ये समस्या ख़त्म हुई नहीं है.कुछ समय के लिए शांत जरुर है क्यों कि
जवाब देंहटाएंवर्त्तमान में मणिपुर-नागालैंड समस्या ज्यादा गंभीर रूप ले चुका है.हमारी भी कामना यही है कि गैर मणिपुरी को बाहर निकलने जैसा कोई समस्या फिर ना हो.लेकिन इस मानसिकता कि जड़े भारत से बाहर है.जो कभी भी फिर से इसे जन्म दे सकती है.
आपने इस समस्या को गंभीर समझकर अपनी जिज्ञाषा प्रकट कि इसके लिए साधुवाद.
पूर्वोत्तर के वास्तविक समस्याओं को अपने माध्यम से अन्य लोगों तक पहुचाते रहेंगे इसी कामना के साथ...
राजीव पाठक
पूर्वोत्तर भारत