रविवार, 2 नवंबर 2014

लौह पुरुष को याद रखा, लौह स्त्री को क्यों भुला दिया ?

यह सत्य है कि राजनीति जब विचारधारा की गलियों से होकर सत्ता तक पहुंचती है तो स्वाभाविक संकुचित हो जाती है, और सत्य यह भी है कि विचारधारा के बिना लोकतान्त्रिक ढांचे में जनता से न तो आपका संवाद स्थापित हो सकता है, और न ही आप जनता का समर्थन प्राप्त कर सकते हैं. क्योंकि जनता उन्ही गलियों में रहती है जहाँ से होकर आप सत्ता तक पहुँचते हैं. सत्ता परिवर्तन के साथ ही विचारधारा के अनुरूप बाकी चीजें बदलनी लाजमी हैं. लेकिन विचारधारा और सत्ता की राजनीति से ऊपर भी कुछ है ! भारत में ही इसके दर्जनों उदाहरण हैं.

श्रीमती इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री हुआ करती थीं और अटल बिहारी वाजपेयी विपक्ष के एक नेता. भारत के शीर्ष नेताओं का एक प्रतिनिधिमंडल यूरोप के दौरे पर था. पत्रकार वार्ता में एक पत्रकार ने अटल जी से यह सवाल किया कि आपके देश में सबसे मजबूत नेता कौन है? इस प्रश्न के उत्तर में अटल जी ने भारत के कई समकालीन नेताओं के नाम बता दिए. पत्रकार यह समझते हुए कि अटल जी देश में विपक्ष के नेता हैं इसीलिए इंदिरा गांधी का नाम नहीं बताया है, एक और प्रश्न किया. क्या श्रीमती गांधी आपके देश की बड़ी नेता नहीं हैं ? अटल जी ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, आपने तो भारत के बड़े नेताओं का नाम पूछा था, श्रीमती गांधी तो दुनिया के बड़े नेताओं में आती हैं. उत्तर सुनकर सभी भौंचक्के रह गए. यह राजनीतिक उदारता का परिचय था.

1965 के भारत-चीन युद्ध के समय ऐसी ही उदारता पंडित नेहरू ने दिखलाई थी. विचारधारा के अनुसार कांग्रेस के विपरीत दूसरे ध्रुव पर खड़े राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों को नेहरू ने गणतंत्रता दिवस परेड में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया. संघ के स्वयंसेवक पहली बार सेना के साथ राजपथ पर कदमताल करते नजर आये. उसी समय सरकार के कहने पर संघ के स्वयंसेवकों ने दिल्ली की यातायात व्यवस्था को भी संभाला था.

भारत की लोकतान्त्रिक यात्रा में ऐसे अनेक उदाहरण है जिनमे विचारधारा और राजनीति से ऊपर उठकर देशहित के लिए निर्णय लिये गये. व्यक्ति से ऊपर पद की गरिमा को रखा गया. लेकिन पिछले एक दशक में देश की राजनीति बदली है. विचारधारा की धार पैनी होती गई है परिणामतः राजनीतिक संकीर्णता अब चरम पर है.

हमारे प्रधानमंत्री जिन जुमलों पर जनता को लुभाते हैं ज़रा उसपर भी गौर कीजिए. एक तरफ "एक भारत- श्रेष्ठ भारत" और दूसरी तरफ "कांग्रेस मुक्त भारत". नरेंद्र मोदी यह जानते हैं कि कांग्रेस मुक्त भारत दिवा स्वप्न जैसा है, लेकिन जनता की ताली और समर्थन बटोरने के लिए यह नुस्खा अब आजमाया हुआ है. इसलिए इसका ज्यादा प्रयोग हो रहा है. कहते हैं कि राजनीति, रणभूमि और प्यार में सब कुछ जायज़ होता है, बशर्ते कि आप सफल हो जाएँ. शायद मोदी इसी तर्ज पर चल रहे हैं.

मोदी यह बखूबी जानते हैं कि दुनिया में भारत का प्रतिनिधित्व करना है तो गांधी का सहारा जरुरी है और देश की राष्ट्रवादी जनता को मोहित करना है तो "एक भारत- श्रेष्ठ भारत" की मिसाल पटेल को एक आदर्श के रूप में स्थापित करना होगा. गांधी और पटेल अभी तक कांग्रेस के खाते में आते थे, लेकिन मोदी ने बेहद तरीके से उन्हें सर्वस्पर्शी बना दिया. यह अच्छी बात है.

सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती वाले दिन ही स्वर्गीय इंदिरा गांधी की पुण्य तिथि भी होती है. मोदी जी या उनके सूचना प्रसारण मंत्रालय द्वारा श्रद्धांजलि के एक भी विज्ञापन या फेसबुक, ट्विटर से दिखावे का ही सही, एक भी सन्देश क्यों नहीं दिया गया ? यह सवाल राजनीतिक संकीर्णता पर है. इंदिरा गांधी भी सिर्फ कांग्रेस की नहीं हैं, जैसे पटेल और गांधी ! कभी अटल जी ने श्रीमती गांधी को लौह स्त्री की संज्ञा दी थी. फिर सवाल यह है कि सरकार ने लौह पुरुष को याद रखा, लौह स्त्री को क्यों भुला दिया ?

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