सोमवार, 3 नवंबर 2014

यह महादलित वाली महाराजनीति का परिणाम है !

आज सुबह मेरे मेल बॉक्स में पहला ई मेल वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपई जी का था. अपने ब्लॉग के माध्यम से उन्होंने जिस विषय को उठाया है वह वाकई काफी गंभीर है. मेरा जन्म भी सीतामढी में हुआ है. बचपन से ही हमने भी मुसहर टोला को देखा सुना है. गावं का विकास हुआ है. बिजली, सड़क, चिकित्सा सुविधा में सुधार हुआ है. लेकिन मुसहर टोला आज भी वैसा ही है जैसा बीस वर्ष पहले था. इस सबके लिए कौन दोषी है ये बताना बड़ा मुश्किल है. इससे पहले कि इस मुद्दे की गहराई में उतरे. जिस पत्र नें मुझे विचलित किया जरा आप भी उसे पढ़ लीजिये.
(साभार : पुण्य प्रसून वाजपई)     

प्रणाम,
मैं दिलीप + अरुण दोनों भाई आपको अपने गॉंव - तेमहुआ , पोस्ट - हरिहरपुर, थाना - पुपरी, जिला - सीतामढ़ी, पिन - 843320 , राज्य - बिहार, आने का निमंत्रण देता हूँ, क्योकि मै आपको वहां ले जाना चाहता हूँ जहाँ की फिजा में 48 दलित मुसहर भाई - बहन की अकाल मृत्यु की सांसों से मेरा दम घुटता है। मैं आपको उन्हें दिखाना चाहता हूँ जो मरना तो चाहते है मगर अपने बच्चे, अपने परिवार के खातिर किसी तरह जी रहे हैं। मैं आपको उनसे मिलाना चाहता हुं जो जिन्दा रहना तो नहीं चाहते मगर जीवित रहने रहने के लिए मजबूर हैं| मैं आपको उस वादी में ले जाना चाहता हु जहाँ के लोग या तो भूखे हैं या फिर भोजन के नाम पर जो खा रहे हैं, उसका शुमार इंसानी भोजन में नहीं किया जा सकता हैं! मै आपको उन कब्रों तक ले जाना चाहता हूँ  जिसमे दफ़न हुए इंसानों के भटकते रूह इस मुल्क की सरकार से यह आरजू कर रही है, कि कृपया हमारे बच्चों के जिन्दा रहने का कोई उपाय कीजिये ।

मै आपको हकीकत की उस दहलीज़ पे ले जाना चाहता हु जहाँ से खड़ा होकर जब आप सामने के परिदृश्य को देखेंगे तो आपके आँखों के सामने नज़ारा उभर कर यह आएगा क़ि आज़ाद भारत में आज भी इंसान और कुत्ते एक साथ एक ही जूठे पत्तल पर अनाज के चंद दाने खा कर पेट की आग बुझाने को मज़बूर हैं। मै आपको उस बस्ती से रु-ब-रु करना चाहता हुं जो बस्ती हर पल हर क्षण हर घड़ी भारत के राष्ट्रपति से यह सवाल पूछ रही है कि बता हमारे बच्चे कालाजार बीमारी से क्यूँ मर गए? मै आपको उन बदनसीब इंसानों से मिलाना चाहता हु जो अपनी शिकायत या समस्या का हल ढूंढने में खुद को पाता है।

मै आपको यहाँ इसलिए बुलाना चाहता हूं क्योंकि पिछले 10 सालो में 3600 से अधिक पत्रों द्वारा की गई हमारी फरियाद उस पत्थर दिल्ली के आगे तुनक मिज़ाज़ शीशे की तरह टूट कर चूर - चूर हो जाती है । मैं आपको यह सब इसलिए कह रहा हुं क्योकि बचपन से लेकर आज तक मैं ऐसे लोगो से घिरा हुआ हुं जो अपनी जिंदगी की परछाइयों में मौत की तस्वीर तथा कब्रो के निशान देखते हैं। जो भोजन के आभाव में और काम की अधिकता के कारण मर रहे है ! जिनका जन्म ही अभाव में जीने और फिर मर जाने के लिए हुआ है। ये लोग इस सवाल का जवाब खोज रहे है कि मेरी जिंदगी की अँधेरी नगरी की सीमा का अंत कब होगा ? हम उजालों की नगरी की चौखट पर अपने कदम कब रखेंगे ? लिहाजा ऐसी निर्णायक घड़ी में आप हमारे आमंत्रण को ठुकराइए मत क्योंकि यह सवाल  केवल हमारे चिंतित होने या न होने का प्रश्न नहीं है । यह केवल हमारे मिलने या न मिलने का प्रश्न नहीं है। बल्कि यह हमारे गावं में कालाजार बीमारी से असमय मरने वाले नागरिक के जीवन मूल्यों का प्रश्न है। यह उन मरे हुए लोगों के अनाथ मासूमों का प्रश्न है! यह उन मरे हुए इंसानो के विधवाओं एवं विधुरो का प्रश्न है। यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र सरकार की संवैधानिक जिम्मेवारी का प्रश्न है! यह हमारे द्वारा भेजे गए उन हजारों चिठ्ठियों का प्रश्न है जिसमें हमने अपने गावं के गरीबों की जान बचाने की खातिर मुल्क के राष्ट्रपति से दया की भीख मांगी थी।

इसलिए देश और मानवता के हित में कृपया हमारा आमंत्रण स्वीकार करें!
धन्यवाद, दिलीप कुमार/अरुण कुमार/सीतामढ़ी (बिहार) [+919334405517]
इति.


दिलीप और अरुण के जख्म नए नहीं हैं. कहानी लम्बी है. लगभग दो दशक हो गए. एक चुनाव प्रचार में लालू यादव ने जब अपनी बनियान को कुर्ते के ऊपर पहनी तो सामान्यतया सबने यही समझा कि लालू ने लोगों को रिझाने-हँसाने का यह कोई नया तरीका अपनाया है. सभा को सम्बोधित करने जब लालू मंच पर पहुंचे तो उन्होंने उल्टे लोगों से ही पूछ डाला कि बताओ मैंने बनियान को ऊपर क्यों पहनी है ? कुछ देर तक नारे से माहौल को गरम होने देने के बाद लालू ने खुद उस प्रश्न का जवाब दिया. 'अब समय आ गइल बा... बड़का के नीचे कर औ छोटका सब ऊपर आब' . यह पहला मौका नहीं था जब लालू ने दलित और पिछड़ों को यह महसूस कराया था कि उसकी लड़ाई लड़ने वाला कोई और नहीं है .लालू जानते थे कि बिहार की राजनीति में बस एक सिक्का ऐसा है जिसे वो लम्बे समय तक चला सकते हैं. हिन्दू राजनीति की धारा से इतर कोई गणित ठीक बैठ पा रहा था तो वह लालू का एम वाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण था. 

एम वाई समीकरण को दोहरा मजबूती दे रहा था लालू का दलित-पिछड़ा वाला टॉनिक. लालू ने राजनीति और प्रशासन का एक नया मॉडल प्रस्तुत किया. मुझे अच्छी तरह याद है लालू के चरवाहा विद्यालय को नई सोच और विकास की राजनीति का नाम दिया गया था. तथाकथित दलित राजनीति के पैरोकार और  पंडितों ने इसे ऐतिहासिक कदम बताया था. उन्ही दिनों पटना के गांधी मैदान में 'महारैला' शब्द का भी जन्म हुआ. लाठी धारी हजारों लोगों को लालू ने युग परिवर्तन का दिवा स्वप्न दिखा दिया. रोजगार, भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य के वास्तविक कार्यों से दूर तत्कालीन बिहार सरकार जंगल राज की ओर जनता को धकेल चुकी थी. कुछ ही वर्षों बाद परिणाम सामने आने लगा.  
                        बिहार में अपहरण प्रमुख व्यापार बनकर उभरा. सामान्य विद्यालय भी चरवाहा विद्यालय की श्रेणी में आ गया. एम.सी.सी. (माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर) का जाल फ़ैल गया. लेकिन प्रकृति के नियम को कौन झुठला सकता है. हर क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया होती है. एम.सी.सी. के खिलाफ सवर्णों की रणवीर सेना संगठित हो गई. जातिगत तनाव चरम पर था. युवाओं का पलायन सर्वाधिक हो गया. बिहार और बिहारी सम्मान को देश-दुनिया में ठेश पहुंची. भ्रष्टाचार और घोटाला सरकारी कार्यालय के कार्यप्रणाली का सामान्य हिस्सा बन गया.
                             देर से ही सही, जनता ने जंगल राज को नकार दिया. एक शिक्षित और विकास की दृष्टि लिए सुलझे हुए व्यक्ति नीतीश कुमार को बिहार का कमान मिली. इसमें कोई दो राय नहीं कि बिहार के विकास की रफ़्तार फिर से तेज़ हो गई. अपहरण की घटनाओं में काफी कमी आ गई. मूलभूत सुविधाओं का विकास हुआ. जनता खुद को सुरक्षित महसूस करने लगी. लेकिन राजनीति में जीत ही अंतिम सत्य है. नीतीश कुमार को जब दूसरी बार सत्ता में आने के लिए अपनी रणनीति बनानी पड़ी तो उन्होंने भी लालू के दलित कार्ड को मात देने के लिए एक नए कार्ड का इस्तेमाल किया. देश के राजनितिक-सामाजिक शब्दावली में शायद पहली बार महादलित शब्द का प्रयोग हुआ. कुछ मायनों में महादलित शब्द जिस जाति विशेष के लिए प्रयोग हुआ वह उचित ही था. लेकिन नामाकरण कर देने से उनके समस्या का समाधान कतई नहीं होने वाला है, यह नीतीश कुमार भी भलीभांति जानते थे. हर मुशहर टोले में एक रेडियो दिया गया. महादलित के बच्चों के लिए अलग विद्यालय और युवाओं के लिए विशेष आरक्षण. 
                संयोग से आज बिहार के मुख्यमंत्री उसी महादलित जाति से आते हैं. पद भार सँभालने के बाद जीतन राम मांझी स्वयं कितनी बार मुसहर टोले में गए हैं? महादलितों को विकास की मुख्यधारा में लेने के लिए उन्होंने कौन सी दूरदर्शी योजना बनाई है ? यह बड़ा सवाल है. हाँ ! उन्होंने महादलित को जनसँख्या बढ़ाने की सलाह सार्वजनिक मंच से जरूर दी है. महादलित का मुख्यमंत्री होना महादलित के लिए वरदान होगा या अभिशाप यह तो भविष्य तय करेगा.
 
पुनः प्रसून जी के ब्लॉग से ही साभार कुछ पंक्तियों के साथ विराम लेता हूँ. दिनकर की कविता, “भारत का यह रेशमी नगर “की दो पंक्तिया दिल्ली को सावधान और सचेत तो जरुर करेगी, “तो होश करो, दिल्ली के देवो, होश करो / सब दिन को यह मोहिनी न चलने वाली है / होती जाती है गर्म दिशाओं की सांसे, / मिट्टी फिर कोई आग उगलने वाली है। 

राजीव पाठक 
+919910607093 

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