महामहिम राष्ट्रपति डॉ.प्रणव मुखर्जी ने स्वतंत्रता दिवस के पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम अपने पहले संबोधन में वो सब कुछ कहा है जो एक निरपेक्ष और इमानदार राष्ट्राध्यक्ष को कहना चाहिए | उन्होंने अपने भाषण के प्रारंभ में कहा की भारत हमारी मातृभूमि है और माँ के लिए हमारा समर्पण होना चाहिए | भारत की पहचान इसकी संस्कृति और सभ्यता है | अंतिम व्यक्ति तक पहुचने का लख्या अब जल्दी हीं पूरा करना होगा | युवाओं का आक्रोश स्वाभाविक है क्यों की उन्हें वह अवसर नहीं मिल रहा जिसके लायक वो हैं | भ्रष्टाचार की समस्या गंभीर है लेकिन इससे निपटने के लिए बार-बार किया गया आन्दोलन हमारे लोकतान्त्रिक आस्था को कमजोर करेगा | इस व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता है यह महामहिम ने स्वीकार किया | उन्होंने कहा कि मैं साकारात्मक दृष्टि रखता हूँ इसीलिए मैं ग्लास को आधा भरा हुआ देखता हूँ न कि आधा खाली | असम जैसे घटनाओं पर चिंता भी जाहिर की | ओलम्पिक के बेहतर प्रदर्शन पर ख़ुशी और अगले ओलम्पिक में और बेहतर प्रदर्शन कि उम्मीद जताई | देश के प्रहरियों को प्रणाम कहा और अंत में उपनिषद के मंत्र "सहना ववतु सहनौ भुनक्तु.................." से अपने भाषण कि समाप्ति की | बहुत की नपा-तुला किन्तु भावुक और उम्मीद जगाने वाला एक प्रेरणादाई भाषण |
राजीव पाठक
महामहिम ने नारा दिया है "ज्ञान सबके लिए और सब ज्ञान के लिए"
राजीव पाठक
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